प्रेरक घटनाएँ
पिण्डवाडा की पीड़ा
मई,1976 सिरोही जिले के पिण्डवाड़ा में भयंकर बस-ट्रक दुर्घटना। ‘‘खबर मिलते ही ‘मन’ विचलित हो उठा। मैं तत्क्षण निकल पड़ा छुट्टी लेकर दुर्घटना स्थल पर। मेरी कल्पना से ज्यादा स्थिति भयानक थी। तब तक रोगियों को पिण्डवाड़ा के छोटे अस्पताल में लाया जा चुका था। कहाँ पलंग ? कहाँ बिस्तर ? बस लिटा दिया-बरामदे में, छोड़ दिया उनकी किस्मत पर।
43 घायलों के बीच नर्स भी एक ही थी और स्थिति बिगड़ती जा रही थी, घायलों का खून रूक नही रहा था। वहाँ के स्थानीय व्यक्तियों के सहयोग से मेटाडोर की गई। सिरोही के हॉस्पिटल में ले जाने के लिए उठाने लगे, तो दिवार बन गये - दो सिपाही। कहने लगे-‘‘ दुर्घटना स्थल पर गये डॉ. साहब की आज्ञा बिना नहीं ले जा सकते-आप इन्हें। मैं सिहर गया…… आखिर मौत पर भी आज्ञा। मेरे रोंगटे खड़े हो गये-उनकी हृदयहीनता देखकर।........... अनुनय विनय के बाद हम घायलों को सिरोही हाॅस्पीटल ले गये। 5 दिन लगातार रहा हॉस्पिटल में मैं।
बाद में प्रतिदिन एक -दो घण्टा उन घायलों को मिलने जाता रहा।................. एक ऐसा क्रम जो मेरे शौक में बदल गया और 1976 से आज तक यही क्रम चल रहा है।
आर्तनाद किसना जी भील का
जनरल हॉस्पिटल उदयपुर का सर्जिकल वार्ड नंम्बर 11 बेड नंम्बर 9............ हमेशा की तरह किसना जी आदिवासी से जाकर राम-राम की। अपनी जर्जर काया को साधते हुए उन्होंने राम-राम का जवाब दिया ही था कि उसी समय भोजन वितरण करने वाली हॉस्पिटल की ट्रोली आ गई। मैंने थाली लेकर किसना जी को दी। उस गरीब बेसहारा ने एक रोटी खाई, और बाकी रोटी और सब्जी अपने जर्मन के कटोरे में रख दी। मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं सका। पूछ ही लिया, क्यों बा साहब ? आपरी भूख बन्द वेई री है. (बा साहब, क्या आपकी भूख बन्द हो रही है ?) एक मिनट वे मौन रहे फिर रूंधे गले से बोले ‘‘बावजी मने लेइन मारो बेटो व भाई आयोड़ा है। दो दिन वेइग्या पैसा बिल्कुल नी रिया, ये रोटियाँ वणारे लिए राखी है। ( श्रीमान मुझे लेकर मेरा भाई व बेटा भी आये हुए हैं। दो दिन से पैसे बिल्कुल समाप्त हो गये हैं, ये रोटियाँ दोनों के लिए बचाकर रखी हैं।) एक मिनट मौन रहे......सहानुभूति मिलते ही उनके सब्र का बाँध टूट गया और 60 वर्षीय किसना जी भील फूट-फूट कर अपने दुर्भाग्य एवं बेबसी पर रोने लगे। आँखa गीली हो गई, एक विचार आया..................परिचित 5-7 घरों में खाली डिब्बे रख उनसे निवेदन किया कि जिस प्रकार से आप एक रोटी गाय की निकालते हैं, वैसे ही अपनी रोटी बनाने के पहले एक-दो मुट्ठी ऐसे लोगों के लिए भी निकाले जो दो-दो रातें भूखे गुजार लेते हैं, पर मांग सकते नहीं। अपनी गरीबी पर मन मसोस कर रह जाते हैं-ये लोग।
एक मुट्ठी आटे की गाथा
किसना जी भील की घटना के अगले ही दिन दशहरा था, सेक्टर पांच में गायत्री यज्ञ हो रहा था। मैंने अपनी पीड़ा लोगों को बताई और अनुरोध किया कि प्रत्येक व्यक्ति अपने घर से रोज रोटी बनाने से पहले एक मुट्ठी आटा इस कार्य के लिए अलग से निकाल ले तो उसको एकत्र कर फुलके बना लेंगे। इससे लोगों की दशा सुधारी जा सकती है।
आटा इकट्ठा करने का जिम्मा स्वयं मैंने ले लिया और इसके बाद कई घरों में गए और एक डिब्बा अलग से निकालने के लिए कहा। इन डिब्बों पर दरिद्र नारायण सेवा लिखा, इस पर मेरी पत्नी कमला जी ने दरिद्र लिखने पर एतराज किया। मैंने दरिद्र शब्द हटा दिया और प्रत्येक डिब्बे पर नारायण सेवा लिख दिया। इसके साथ ही एक संस्थान अपनी डगर पर चल पड़ी।
कुछ घर ऐसे थे जहाँ कोई डिब्बा नहीं था। इस पर मैं बाजार से डालडा के खाली डिब्बे खरीद कर लाया, उस पर नारायण सेवा लिख दिया और घरों में रख दिया। लोग सुबह शाम इन डिब्बों में आटा डालने लगे। कई लोग आटा डालना भूल जाते और कहते कि वे एक साथ ही इकट्ठा आटा डाल देंगे।
घर से आटा इकट्ठा करने मेरी 13 वर्षीय पुत्री कल्पना भी जाती थी। एक दिन वह रोते हुए आई और बोली -अब हम कभी आटा इकट्ठा करने नहीं जायेंगे। मैं विचलित हो गया और पूछा क्या बात है? तो कल्पना ने बताया कि जब वह एक घर में आटा लेने गई तो उस घर की महिला से उसकी पड़ौसन ने पूछा कि यह आटा क्यों देते हो? इस पर महिला बोली कि पहले तो हम भिखारी को आटा देते थे और अब................. यह कहते-कहते बच्ची बिफर पड़ी और पिता से पूछने लगी कि क्या हम भिखारी हैं? बच्ची की बात से मानो मेरे सिर से पांव तक आघात लग गया। लेकिन तत्क्षण मेरे मानस पटल पर किसना भील का दृश्य उभर आया। मैंने अपने आपको संभाला और अत्यन्त संयत स्वर में अपनी बेटी को अपने सेवाव्रत के बारे में समझाया।